उत्तर में खरमास का विराम, दक्षिण में परंपराओं की निरंतरता: क्या है अलग रिवाज?

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पंचांग के अनुसार, 16 दिसंबर 2025 से खरमास का आरंभ होता है और यह पूरे एक महीने यानी 14 जनवरी तक चलता है, तब देश के एक हिस्से में मांगलिक और शुभ कार्य थम जाते हैं, तो वहीं दूसरे हिस्से में भक्ति और आध्यात्म का एक पवित्र महीना शुरू हो जाता है. उत्तर भारत और दक्षिण भारत की परंपराएं इस एक महीने की अवधि को लेकर पूरी तरह से विपरीत रुख रखती हैं. आइए विस्तार से जानते हैं कि जब उत्तर भारत में खरमास के कारण शुभ कार्यों पर विराम लग जाता है, तब दक्षिण का रिवाज क्या कहता है और क्यों यह अवधि वहां ‘सबसे पवित्र’ मानी जाती है.

उत्तर भारत: खरमास की परंपरा और शुभ कार्यों पर प्रतिबंध
खरमास की परंपरा मुख्य रूप से उत्तर भारत के कुछ हिस्सों, जैसे बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित है. ज्योतिषीय गणना के अनुसार, जब सूर्य देव धनु राशि (धनु संक्रांति) या मीन राशि (मीन संक्रांति) में प्रवेश करते हैं, तो उस पूरे एक महीने की अवधि को ‘खरमास’ या ‘मलमास’ कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि सूर्य का बृहस्पति (धनु और मीन राशि के स्वामी) की राशियों में प्रवेश करने से उनका प्रभाव कम हो जाता है, जिससे ऊर्जा और शुभता में कमी आती है. इस अवधि में विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश, नई संपत्ति की खरीद या बड़े व्यापार की शुरुआत जैसे मांगलिक और शुभ कार्यों को वर्जित माना जाता है.

दक्षिण भारत: मार्गज़ी का पवित्र महीना
उत्तर भारत के विपरीत, दक्षिण भारत की परंपरा खरमास को उस रूप में नहीं मानती है और न ही शुभ कार्यों पर उस तरह का कोई प्रतिबंध लगाती है. दक्षिण भारत (विशेषकर तमिलनाडु) में यह अवधि एक अलग नाम और अत्यंत पवित्र महत्व के साथ जानी जाती है. दक्षिण भारत के कैलेंडर में, 16 दिसंबर से शुरू होने वाली इस अवधि को ‘मार्गज़ी’ महीने के रूप में जाना जाता है. मार्गज़ी महीने को दक्षिण भारत में भगवान की आराधना के लिए और मांगलिक कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है.

क्या दक्षिण भारत में शुभ कार्यों पर रोक होती है?
दक्षिण भारत में खरमास के कारण शादी-विवाह या अन्य शुभ कार्यों पर कोई धार्मिक प्रतिबंध नहीं होता है. हालांकि, कुछ समुदाय अपनी परंपरा के अनुसार मुहूर्त देखते हैं, लेकिन इसे अशुभ काल नहीं माना जाता है.

इसलिए भारतीय परंपराओं में, एक ही खगोलीय घटना को लेकर दो भिन्न दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं, उत्तर भारत में लोग इस अवधि को ‘अशुभ’ मानकर शुभ कार्यों को टाल देते हैं. वहीं, दक्षिण भारत में इसे शुभ और ईश्वर को समर्पित महीना मानकर भक्ति और आध्यात्म में लीन हो जाते हैं.

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